हिन्दू जाती का उत्थान और पतन | Hindu Jati Ka Uthan Aur Patan

By: रजनीकान्त शास्त्री - Rajanikanth Shastri


दो शब्द :

इस पाठ का उद्देश्य हिंदू जाति को उसके वास्तविक स्वरूप से परिचित कराना है, ताकि वह अपनी आत्मश्लाघा और परनिन्दा के नशे से बाहर आ सके। लेखक का कहना है कि हिंदू जाति का दावा है कि वह प्राचीनतम सभ्यता की धरोहर है, लेकिन यह दावा निष्पक्षता से विचार करने पर संदिग्ध लगता है। हिंदू शब्द स्वयं भारतीय भाषा का नहीं है और यह पारसी शब्द 'सिन्धु' से व्युत्पन्न है। लेखक ने यह बताया है कि हिंदू जाति में कई जातियों और उपजातियों का मिश्रण है, जिससे यह धारणा कि वे शुद्ध आर्य हैं, असत्य है। जाति व्यवस्था के कारण समाज में जो भेदभाव और पतन हुआ है, वह चिंता का विषय है। लेखक ने जाति व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई है और इसे समाज के लिए हानिकारक बताया है। हिंदू जाति की आत्म-घोषणा और परनिन्दा की प्रवृत्ति को लेखक ने कड़ी आलोचना की है। उन्होंने कहा है कि हिंदू जाति ने अपने ही सदस्यों को अज्ञानता में रखा है, जबकि अन्य जातियों ने प्रगति की है। लेखक ने यह भी रेखांकित किया है कि जिन जातियों को हिंदू जाति ने नीचा समझा, उनके पास भी प्राचीन सभ्यता के प्रमाण हैं। लेखक ने यह प्रश्न उठाया है कि क्या हिंदू जाति ने कभी अपने पूर्वजों के खान-पान पर विचार किया है, और क्या उन्हें अपनी प्राचीन परंपराओं का ज्ञान है? उन्होंने यह भी कहा कि यदि हिंदू जाति अपने ही सदस्यों को शिक्षा और अधिकार नहीं देती, तो वह 'जगदुगुरु' बनने का दावा कैसे कर सकती है। इस प्रकार, पाठ में हिंदू जाति के आत्म-मूल्यांकन, जाति व्यवस्था के प्रभाव और सामाजिक सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।


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