कोणार्क | Konark by


दो शब्द :

इस पाठ में श्री जगदीश चंद्र माथुर की नाट्य-कृति "कोणार्क" का विवेचन किया गया है। लेखक ने कृति की विशेषताओं और उसके महत्व को उजागर किया है। "कोणार्क" एक अद्वितीय नाटक है जिसमें प्राचीन और नवीन नाट्य कला का सामंजस्य देखने को मिलता है। नाटक में तीन अंकों के माध्यम से एक पुरातन युग का जीवन चित्रित किया गया है। लेखक ने नाटक के संवाद, ध्वनि, और कथा-वस्तु की सराहना की है और इसे एक संतुलित कला-कृति बताया है। कोणार्क के मन्दिर की ऐतिहासिकता और उसकी भव्यता को भी नाटक में शामिल किया गया है। मन्दिर का निर्माण उड़ीसा के महाराज नरसिंह देव के द्वारा किया गया था, जो उस समय के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण है। लेखक ने इस नाटक में इतिहास का सहारा लेकर एक भावनात्मक और रौद्र रूप प्रस्तुत किया है, जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करता है। इसके अतिरिक्त, पाठ में नाटक की संरचना, पात्रों, और उनके संबंधों का भी विवरण दिया गया है। नाटक का उपक्रम और उपसंहार विशेष रूप से प्रभावशाली हैं, और यह दर्शाता है कि कला और संस्कृति के प्रति विद्रोह का संदेश कैसे प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने अपने अनुभव और विचारों के माध्यम से नाटक के भविष्य पर भी चर्चा की है, जिसमें वह हिंदी रंगमंच और नाटक के विकास की संभावनाओं पर विचार करते हैं। कुल मिलाकर, यह पाठ "कोणार्क" नाटक की गहराई, उसके ऐतिहासिक संदर्भ, और सामाजिक संदेश को उजागर करता है।


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