भाषा विज्ञान | Bhasha Vigyan

- श्रेणी: भाषा / Language विज्ञान / Science
- लेखक: मंगलदेव-शास्त्री - mangaldev-sastri
- पृष्ठ : 375
- साइज: 34 MB
- वर्ष: 1963
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दो शब्द :
इस पाठ में हिन्दी भाषा और भाषा-विज्ञान के महत्व पर चर्चा की गई है। लेखक ने यह विचार व्यक्त किया है कि मातृभाषा को अपनाए बिना जातीय दुरवस्था का सुधार संभव नहीं है। उनका मानना है कि मातृभाषा की उन्नति के बिना आम जनता और शिक्षित वर्ग के बीच की खाई नहीं मिट सकती। उन्होंने इंग्लैंड और अन्य विकसित देशों का उदाहरण दिया, जहाँ मातृभाषा के अपनाने से समाज में समता और एकता का भाव पैदा हुआ है। लेखक ने यह भी बताया है कि मातृभाषा के भंडार को बढ़ाने के लिए स्वतंत्र लेखन की आवश्यकता है, जिससे अन्य भाषाओं से सीखी गई विद्या को भी शामिल किया जा सके। उन्होंने यह स्वीकार किया कि भारतीयों में मातृभाषा के प्रति जागरूकता कम है और हिन्दी बोलने वालों में यह कमी अधिक है। पारंपरिक ग्रंथों के प्रकाशन की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए, लेखक ने 1622 में एक ग्रन्थमाला की योजना बनाई थी, जिसका उद्देश्य विभिन्न विषयों पर विद्वानों द्वारा लेखन कराना था, लेकिन कुछ कारणों से यह विचार कार्यान्वित नहीं हो सका। वे इस पुस्तक को हिन्दी में इस विषय पर पहली पुस्तक मानते हैं और आशा करते हैं कि पाठक अपने विचारों से उन्हें मार्गदर्शित करेंगे। भाषा-विज्ञान के अध्ययन के महत्व पर जोर देते हुए, लेखक ने बताया कि भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समाज का संगठन और मानव उन्नति संभव है। उन्होंने ज्ञान और विज्ञान के बीच के भेद को स्पष्ट करते हुए कहा कि विज्ञान में तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है। अंत में, लेखक ने भाषा-विज्ञान के स्वरूप और उसके अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें भाषाओं की तुलना करना और उनके गुणों का विश्लेषण करना शामिल है। इस प्रकार, यह पाठ हिन्दी भाषा और भाषा-विज्ञान के प्रति जागरूकता बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण योगदान करता है।
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