मूक माटी  | Mook Maati by


दो शब्द :

'मूक माटी' आचार्य विद्यासागर की एक महाकाव्य है, जो माटी जैसे साधारण और तुच्छ तत्व को काव्य का विषय बनाकर उसकी महत्वता और भव्यता को उजागर करती है। यह कृति केवल साहित्यिक उपलब्धि नहीं है, बल्कि एक दार्शनिक सन्देश भी प्रदान करती है। इसमें माटी की शुद्धता को मुक्ति की यात्रा के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो साधना और आत्म-विशुद्धि का प्रतीक है। महाकाव्य का प्रारम्भ प्राकृतिक परिदृश्य से होता है, जहाँ माटी की वेदना और उसकी गहराइयों में छिपे जीवन-दर्शन को व्यक्त किया गया है। माटी नायिका है, जबकि कुम्भकार, जो उसे मंगल-घट में परिवर्तित करता है, नायक के रूप में प्रस्तुत है। यह काव्य चार खंडों में विभाजित है, जिसमें माटी की स्थिति, शब्द और बोध, तथा पुण्य और पाप का सिद्धांत शामिल है। प्रथम खंड में माटी की प्राथमिक दशा और उसके शुद्धिकरण की प्रक्रिया का वर्णन है। दूसरे खंड में शब्द और बोध का महत्व बताया गया है, जहाँ शब्दों की शक्ति को नये संदर्भों में उजागर किया गया है। तीसरे खंड में पुण्य का पालन और पाप का प्रक्षालन, मन, वचन और काय की निर्मलता से जुड़ा है। इस महाकाव्य में कवि ने शब्दों के माध्यम से गहरी सोच और जीवन का सार प्रस्तुत किया है। 'मूक माटी' केवल कविता नहीं, बल्कि जीवन के अर्थ और उसके गूढ़ रहस्यों को समझाने का एक प्रयास है। यह कृति मानवता के कल्याण और साधना की ओर प्रेरित करती है, जिससे पाठक को गहराई से सोचने पर मजबूर किया जाता है।


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