दो शब्द :

यह पाठ "सरसागर" नामक ग्रंथ के पहले खंड के प्रकाशन की प्रक्रिया और इसके महत्व का वर्णन करता है। इसे गोलोकबासी जगन्नाथदास 'रत्नाकर' द्वारा संकलित किया गया है और इसका संपादन श्रीनंददुलारे वाजपेयी ने किया है। यह ग्रंथ पिछले कई वर्षों से अप्रकाशित था और हिंदीभाषी जनता के लिए, विशेषकर काउप्र-प्रेमियों और सुरकाब्य के अध्येताओं के लिए, इसका अभाव महसूस किया जा रहा था। प्रस्तुत संस्करण में इस ग्रंथ के सभी उपलब्ध पदों का शुद्ध पाठ प्रस्तुत किया गया है, हालांकि इसमें कुछ पदों का विवरण और प्राचीन प्रतियों के पाठभेद नहीं दिए जा सके हैं। संपादक ने स्वीकार किया है कि कई पद संदिग्ध हैं और पूर्ण उपयोग नहीं किया जा सका है। पाठक समुदाय को यह प्रारंभिक प्रति भेंट की जा रही है ताकि वे इसका उपयोग कर सकें। जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने इस ग्रंथ के लिए कई हस्तलिखित प्रतियाँ एकत्र की थीं और संपादकीय कार्य की प्रारंभिक रूपरेखा बनाई थी, लेकिन उनके निधन के कारण यह कार्य अधूरा रह गया। बाद में यह कार्य नागरीप्रचारिणी सभा को सौंपा गया, जिसने संपादन कार्य को नए सिरे से आरंभ किया। संपादक ने चार वर्षों के दौरान ग्रंथ का संपादन किया और अपने पूर्ववर्ती संपादकों के निर्देशों का सम्मान किया। संपादक ने पाठकों से क्षमा याचना की है कि ग्रंथ में कुछ त्रुटियाँ हो सकती हैं और उन्होंने आगामी संस्करण में सुधार का आश्वासन दिया है। इसके साथ ही, सरदास और उनके काव्य पर विस्तृत प्रस्तावना लिखने की इच्छा व्यक्त की है, ताकि पाठकों को इस महान ग्रंथ का सम्पूर्ण अनुभव हो सके।


Please share your views, complaints, requests, or suggestions in the comment box below.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *