हिंदी काव्य -धारा | Hindi Kavya- Dhara

- श्रेणी: काव्य / Poetry साहित्य / Literature हिंदी / Hindi
- लेखक: राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan
- पृष्ठ : 567
- साइज: 39 MB
- वर्ष: 1945
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दो शब्द :
इस पाठ में हिंदी काव्य-घारा के मध्यकालीन कवियों की काव्य-परंपरा और भाषा के विकास पर चर्चा की गई है। कवियों ने संस्कृत के साथ अपना नाता जोड़ा, लेकिन इस दौरान अपश्रंश काव्यों का भी विकास हुआ। लेखक का मानना है कि इन कवियों की भाषा में समय के साथ बदलाव आया है, और यह भाषा किसी स्थिर अवस्था में नहीं रही। कवियों की भाषा में प्रमुख अंतर देखने को मिलता है, लेकिन यह भी बताया गया है कि यह भाषा मूलतः भौर और भ्राज की भाषा से जुड़ी हुई है। लेखक ने यह भी उल्लेख किया है कि भारत की विभिन्न भाषाएं एक-दूसरे के निकट थीं और सभी में एक सम्मिलित भाषा का योगदान रहा। पाठ में यह भी बताया गया है कि अपश्रंश भाषा को संस्कृत की तरह मृत भाषा नहीं माना जा सकता, बल्कि यह एक जीवित भाषा थी, जो समय के साथ विकसित होती रही। अपश्रंश के कवियों ने अपनी रचनाओं में अपनी मातृभाषा का प्रयोग किया, और यह भाषा धीरे-धीरे हिंदी की नींव के रूप में विकसित हुई। संक्षेप में, यह पाठ हिंदी साहित्य के इतिहास में अपश्रंश काव्य और उसकी भाषाई विशेषताओं पर केंद्रित है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि अपश्रंश भाषा ने हिंदी की विकास यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
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